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कविता

हाथ

सर्वेंद्र विक्रम


जब किसी तरह खड़ी हुईं वे बोलने
गीली थी हथेलियाँ और उलझी उँगलियाँ
घुसी जा रही थीं पैरों की चप्पलें आपस में
सीधी खड़ी नहीं हो पा रही थीं या आदत नहीं रहीं हो
इसे प्रचारित किया गया उनकी विनम्रता की तरह

मान्यता थी कि वे लताएँ हैं
उन्होंने जीवन धारण किया दूसरी जगह
पड़ी रही थोड़े दिनों प्रेम में
बना रहा थोड़े दिनों हिंडोले पर झूलने का अहसास
फिर लग गईं घर-गिरस्ती में जूझने लगीं लदी-फँदी दिनरात

जहाँ एक पौधा उग सकता है वहाँ ग्यारह उगा सकने की सिफत
उन हाथों में आग को काबू रखना और बेकाबू कर देने की

धोने पकाने साफ-सूफ करने के अलावा
हाथों का और भी है इस्तेमाल जानती न होंगी
इसे उनकी मासूमियत करार दिया गया
माना गया इसे प्यार की काबिलियत

उन्होंने देखा होगा गूँगों बहरों को बतियाते हुए
जब सबसे ज्यादा सक्रिय होते हैं उनके हाथ,

एक दूसरे को ताकती मौन बैठी रहीं
शब्द उनके ऊपर से उड़कर गए
जानते बूझते बनीं रहीं वैसी न कुछ देखना न बोलना
बरज देने जैसा छिटपुट प्रतिरोध तक नहीं


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